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GRAHAN: सूर्य ग्रहण और चंद्र ग्रहण क्यों लगता है? | ग्रहण की पौराणिक कथा

चंद्र ग्रहण और सूर्य ग्रहण क्यों लगता है?

आज के भौतिक युग में अनेकों कारण बताए गए हैं परंतु हम सनातन प्रेमियों को उस परम सत्य को जानना आवश्यक है जिसके कारण सूर्य ग्रहण और चंद्र ग्रहण की शुरुआत हुई। 

बात उस समय की है जब समुद्र को मथ कर अमृत निकालने का प्रयास किया जा रहा था। समुद्र मंथन के कारण समुद्र में से अनेकों रत्न उत्पन्न हो रहे थे जिनमें से हलाहल विष भी निकला। हलाहल विष समस्त संसार को नष्ट करने के लिए आगे बढ़ रहा था कि तभी देवों के देव महादेव ने समस्त सृष्टि की रक्षा के लिए उस हलाहल विष को अपने कंठ में धारण कर नीलकंठ हो गए। समस्त देवताओं ने महादेव को प्रणाम कर सृष्टि की रक्षा के उत्तरदायित्व को निभाने के लिए उनका उपकार माना और पुनः समुद्र को मथने में लग गए।

समस्त रत्नों के समुद्र से निकलने के पश्चात अंत में भगवान धन्वंतरी अमृत का कलश लेकर समुद्र से बाहर आए। अमृत कलश को प्राप्त करते ही समस्त देवता और दानव आपस में झगड़ने लगे। 

भगवान विष्णु ने मोहिनी रूप धारण कर दैत्यों को शांत कराया और देवताओं और दानवों दोनों को पंक्ति बघ करते हुए अमृत का बांटना शुरू किया। मोहिनी रूप धारी भगवान विष्णु ने देवताओं की ओर से अमृत बांटना प्रारंभ किया। उसी समय दैत्यों की पंक्ति में बैठे राहु ने मन में विचार किया कि क्या पता देवताओं को बांटते बांटते ही अमृत समाप्त हो जाए और हम दैत्यों को मृत मिले ही ना। उसकी विचारधारा ने उसके मन में पाप उत्पन्न किया जिसके कारण राहु चुपचाप दैत्यों की पंक्ति से उठकर देवताओं की पंक्ति में देवताओं का रूप धारण करके बैठ गया। जिस जगह सूर्य और चंद्र बैठे थे उनके मध्य का स्थान रिक्त देखकर दैत्यों के सेनापति राहू सूर्य और चंद्र के मध्य स्थान मे बैठ गया। मोहिनी रूप धारी भगवान देवताओं को अमृत बांटते बांटते सूर्य और चंद्रमा को अमृत देने लगे तत्पश्चात उन्होंने राहू को देवता समझकर उसे भी अमृत प्रदान कर दिया। जैसे ही राहु के हाथ में अमृत पड़ा सूर्य और चंद्रमा दोनों ही चिल्ला उठे कि प्रभु यह देवता नहीं दानव है।

इतना कहते ही भगवान ने सुदर्शन चक्र से राहु का सिर काट दिया परंतु तब तक बहुत देर हो चुकी थी। राहु अमृत पी चुका था और उसके शरीर के दो टुकड़े हो चुके थे। यही कारण है कि राहु के सिर को राहु और उसके धड़ को केतू के नाम से जाना गया।

सूर्य और चंद्रमा की वजह से राहु के शरीर के दो भाग हो गए और राहु, सूर्य और चंद्रमा को परेशान करने लगा। यह तीनों ही भागते भागते महादेव की शरण में गए। सूर्य और चंद्रमा ने महादेव से उनकी रक्षा करने की प्रार्थना की।

महादेव ने सूर्य, चंद्रमा और राहु तीनों की बातों को ध्यान से सुना और तीनों को उनके विश्वकर्मा के लिए प्रताड़ित भी किया। अंतोगत्व सूर्य और चंद्रमा को राहु के प्रकोप से बचाने के लिए भगवान ने राहु को शांत किया और राहु को न्याय दिलाने के लिए भगवान ने राहु को यह वरदान दिया कि उसे ग्रहों में स्थान मिलेगा और समय-समय पर एक दीर्घकाल के व्यतीत होने के पश्चात राहु सूर्य और चंद्र को ग्रहण लगाएगा।

ग्रहण काल में सूर्य और चंद्र को कष्ट का अनुभव होगा परंतु यह काल एक दीर्घकाल व्यतीत होने के पश्चात ही आएगा। वह भी अल्प समय के लिए। ऐसा वरदान राहु को देकर भगवान ने राहु के साथ न्याय करते हुए समस्त दैत्यों और देवताओं को संतुष्ट किया। तब से लेकर आज तक और जब तक यह सृष्टि रहेगी भगवान शिव के द्वारा राहु को प्राप्त यह वरदान लागू रहेगा और राहु, सूर्य और चंद्र को समय-समय पर ऐसे ही ग्रसता रहेगा और ग्रहण लगता रहेगा।

ग्रहण काल में मनुष्य को जप, तप, ध्यान, पाठ और आराधना करनी चाहिए। ऐसा माना जाता है की ग्रहण काल में किया गया जप तप सहस्र गुना ज्यादा फलदाई होता है। ग्रहण काल में सोना, खाना, शौचालय जाना पूर्णतया वर्जित है। 

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