तुलसी कौन थी? | तुलसी विवाव की पौराणिक कथा

महासती वृंदा की आत्म कथा 

प्रिय भक्तों, आज हम आप सभी के समक्ष महासती वृंदा की पौराणिक कथा को लेकर आए हैं। महा सती वृंदा कौन थी? उनको सती नारी क्यों कहा जाता है? उनको तुलसी का नाम किसने और क्यों दिया? समस्त प्रश्नों के उत्तर आज कि पौराणिक कथा में आपको प्राप्त होंगे। 

मित्रों, वृंदा राक्षस कुल में उत्पन्न हुई एक तेजस्वी कन्या थी जो भगवान विष्णु की परम भक्तन थी। समय-समय पर भगवान विष्णु को प्रसन्न करने के लिए अनेक अनुष्ठानों को करती हुई वह अपने परिवार में धीरे-धीरे बढ़ रही थी और भगवान विष्णु की उस पर विशेष कृपा रहती थी। 

उधर दूसरी तरफ भगवान शिव के तीसरे नेत्र से निकली ज्वाला जो समुद्र में समा चुकी थी, उस ने एक बालक का रूप धर लिया था जिसका नाम समुद्र देवता ने जलंधर रखा। जालंधर भगवान शिव के शरीर से उत्पन्न होने के कारण तेजस्वि था जिसे समस्त देवता भी मिलकर जीत नहीं सकते थे। इतने पराक्रम और बल के साथ जलंधर ने धीरे-धीरे व्यस्क स्वरूप को धारण किया। तत्पश्चात 1 दिन समस्त राक्षसों ने गुरु शुक्राचार्य की आज्ञा से उसको राजा घोषित कर दिया।  

जब जलंधर और वृंदा दोनों व्यस्क हो गए तब राक्षस गुरु शुक्राचार्य जी की आज्ञा से जलंधर और वृंदा का विवाह सुनिश्चित कर दिया गया। वृंदा से विवाह करने के पश्चात जलंधर स्वयं को और अधिक शक्तिशाली समझने लगा। उसने देवताओं को युद्ध के लिए ललकारा और जितनी बार इंद्र आदि देवता युद्ध के लिए आते तब कोई भी उसे युद्ध में हरा ना पाता और अपनी हार का स्वाद चख कर समस्त देवता वापस लौट जाते। जलंधर के आतंक से ग्रसित होकर समस्त देवता त्रिदेव की शरण में गए। भगवान् शिव ने इसका उपाय नारायण से पूछने के लिए कहा तब समस्त देवताओं ने भगवान विष्णु की आज्ञा से जलंधर को युद्ध के लिए ललकारा। 

जब जलंधर युद्ध में जाने के लिए तैयार हुआ तब महासती वृंदा ने अपने पति से कहा की स्वामी जब तक आप युद्ध में रहेंगे तब तक मैं आपके प्राणों की सुरक्षा के लिए एक पूजा अनुष्ठान करूंगी। मैं यह माला आपको पहना रही हूं जिसमें अब तक कि मेरे सतित्व की समस्त शक्तियां विद्यमान हैं। जब तक मेरे सतित्व की शक्ति स्वरुप यह माला आपके गले में पड़ी रहेगी तब तक संसार की कोई भी शक्ति आपका अहित नहीं कर सकती। यह सुनकर और अपनी पत्नी की बातों पर विश्वास करके जलंधर ने तत्काल उस माला को अपने गले में धारण कर लिया और युद्ध के लिए प्रस्थान कर गया। 

जब युद्ध में समस्त देवताओं के साथ जलंधर का घोर भीषण युद्ध चल रहा था उस समय समस्त देवता चाह कर भी जलंधर को मार नहीं पा रहे थे क्योंकि उसके प्राणों की रक्षा उसके गले में पड़ी हुई महासती वृंदा की सतीत्व रुपी माला की शक्ति कर रही थी। समस्त देवता भयभीत हो गए, चिंतित हो गए। समस्त देवताओं ने जाकर भगवान नारायण से कहा कि प्रभु आपकी ही भक्त है महासती वृंदा। उनके सतीत्व की शक्ति से ही जलंधर अजेय हैं। अब आप ही को कुछ करना होगा परंतु नारायण ने कहा कि वृंदा मेरी परम भक्त है। मैं उसके साथ कोई छल नहीं करूंगा परंतु देवताओं ने प्रार्थना की, की प्रभु और कोई उपाय भी शेष नहीं बचा। अब जो कुछ करना है वह आपको ही करना होगा क्योंकि जलंधर के अत्याचारों से समस्त पृथ्वी ग्रसित है। 

अतः संसार को जलंधर के कष्ट से मुक्ति दिलाने के लिए भगवान विष्णु ने जलंधर का रूप धारण किया और जलंधर के घर की ओर प्रस्थान किया। जब भगवान विष्णु जलंधर के घर पहुंचे तब उन्होंने देखा कि महासती वृंदा पूजा के अनुष्ठान में बैठी हैं।

जब  वृंदा ने घर पर जलंधर को युद्ध से वापस आए देखा तो तत्काल उसने अपने पूजा स्थान को त्याग दिया और जाकर अपने पति के चरण स्पर्श कर उनको आलिंगन कर लिया।  वृंदा जिसे पति समझ रही थी वह तो नारायण थे परंतु वृंदा यह सत्य न जान सकी और उसने पर पुरुष का स्पर्श कर लिया जिसके कारण उसका सतीत्व भंग हो गया। उसके सतीत्व के भंग होने के कारण युद्ध भूमि में युद्ध लड़ रहे जलंधर के गले में उसके सतीत्व की शक्ति की माला सूखने लगी जिसका परिणाम यह हुआ कि समस्त देवताओं ने जलंधर को युद्ध में पराजित कर उसके प्राण हर लिए। 

जब इस सत्य का ज्ञान वृंदा को हुआ कि उसके सामने खड़ा जलंधर और कोई नहीं स्वयं भगवान नारायण हैं जिन्होंने उसका सतीत्व भंग करने के लिए जलंधर का रूप धारण किया तो वृंदा को अत्यंत क्रोध आया। उसने क्रोध में आकर अपने इष्ट भगवान श्री हरि को श्राप दे दिया कि आपने अपने भक्त की लाज नहीं रखी। आपने  मेरे साथ छल किया। जिस भगवान ने अपने भक्त के साथ छल किया ऐसे भगवान को पाषाण का ही हो जाना चाहिए। पाषाण का हो जाने का श्राप देकर वृंदा ने भगवान को उनके हाल पर छोड़ दिया। 

भगवान ने वृंदा के श्राप को स्वीकार करते हुए तत्काल काले पत्थर के स्वरूप में स्वयं को परिवर्तित कर दिया। भगवान के पत्थर में तब्दील होते ही समस्त देवताओं में हाहाकार मच गया। माता लक्ष्मी विलाप करने लगी और विलाप करती-करती माता लक्ष्मी वृंदा के पास आई और बोली कि मेरी उत्पत्ति भी समुद्र से हुई है और जलंधर की उत्पत्ति भी समुद्र से हुई थी। इस नाते जलंधर मेरा भाई हुआ और मैं आपकी भाभी तो क्या आज आप अपनी भाभी को अपने घर से खाली हाथ लौटाएंगी। मैं आपसे अपने पति के प्राण वापस मांगती हूं। 

माता लक्ष्मी के इस प्रकार प्रार्थना करने पर वृंदा ने उनकी प्रार्थना को स्वीकार करते हुए भगवान विष्णु को वापस उनके पूर्ण स्वरूप में पहुंचा दिया और अपने पति जलंधर का स्मरण कर आत्मदाह कर लिया। 

भगवान विष्णु को अपनी करनी पर अत्यंत खेद हो रहा था परन्तु संसार की रक्षा करने के लिए उनको अपने भक्त के साथ छल करना पड़ा। वृंदा के सती होने के पश्चात भगवान विष्णु ने वृंदा के शरीर की राख से एक पौधे को उत्पन्न किया। उस पौधे का नाम तुलसी रखा गया और भगवान विष्णु ने घोषणा की कि आज के बाद कभी भी तुलसी के बिना मैं भोग स्वीकार नहीं करूंगा। तुलसी मेरी अत्यंत प्रिय होंगी और प्रत्येक वर्ष तुलसी से ही मेरा विवाह होगा। फिर भी तुलसी सदैव कुंवारी ही कहलाएंगे। मेरा शालिग्राम स्वरूप तुलसी के पति के रूप में सदैव तुलसी में विद्यमान रहेगा और तुलसी सदैव निष्कलंक कहलाएंगे। अतः यही कारण है कि प्रत्येक वर्ष कार्तिक मास में देवउठनी एकादशी के दिन तुलसी विवाह किया जाता है जिसमें माता तुलसी का विवाह भगवान शालिग्राम के साथ करने का विधान है। 

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