बच्चो की बुद्धि बढ़ाने का मंत्र | चातुर्मास में पुरुष सूक्त का क्या महत्व है? | Purusha Sukta in Hindi

बच्चों की बुद्धि को प्रबल, कुशाग्र और तीव्र बनाने के लिए हम आपको पुरुष सूक्त महामंत्र बताने जा रहे हैं जिसके जाप से बच्चे प्रखर बुद्धि के स्वामी बन जाएंगे। 

The Purusha Sukta

पुरुष सूक्त एक ऐसा महामंत्र है जिसका वर्णन ऋग्वेद, यजुर्वेद और अथर्ववेद अर्थात तीनों वेदों में पाया गया है। यह सूक्त बच्चों की बुद्धि को तेज करने के लिए उन्हें कुशाग्र बुद्धि वाला बनाने के लिए अत्यंत उपयोगी है। इस सूक्त के अर्थात इस मंत्र के निरंतर जाप से प्राणी अनेकों बीमारियों से मुक्त हो सकता है। पुरुष सूक्त का वर्णन ऋग्वेद के १०वे मंडल में मिलता है हमारे वेद निरंतर इसकी महिमा का वर्णन करते आ रहे हैं और प्राणी आदिकाल से इस महा मंत्र का निरंतर जाप कर अनेकों समस्याओं से मुक्ति पा रहे हैं। 
जो भी मनुष्य अपने बालकों को या बालिकाओं को कुशाग्र बुद्धि वाला बनाना चाहते हैं उन्हें चतुर्मास के दौरान अपने बच्चों को पुरुष सूक्त का पाठ अवश्य कराना चाहिए। संसार का कोई भी बच्चा कितना भी पढ़ाई में फिसड्डी क्यों ना हो, उसका मन पढ़ाई में भले ही न लगता हो यदि ऐसा कोई बालक भी चतुर्मास में पुरुष सूक्त का पाठ करता है तो उसका मन पढ़ाई में लगने लग जाता है और उसकी बुद्धि कुशाग्र हो जाती है और वह ओजवान और तेजवान बन जाता है। 

बच्चो की बुद्धि बढ़ाने का मंत्र  | Purusha Sukta in Hindi

सहस्रशीर्षा पुरुषः सहस्राक्षः सहस्रपात ।
स भूमिँ सर्वतः स्पृत्वाऽत्चतिष्ठद्यशाङ्गुलम् ।।1।।

अर्थ -जो सहस्रों सिर वाले, सहस्रों नेत्रवाले और सहस्रों चरण वाले विराट पुरुष हैं, वे सारे ब्रह्माण्ड को आवृत करके भी दस अंगुल शेष रहते हैं ।।1।।

पुरुषऽएवेवँ सर्वं यद्भूतं यच्च भाव्यम् ।
उतामृतत्वस्येशानो यदन्नेनातिरोहति ।।2।।

अर्थ - जो सृष्टि बन चुकी, जो बनने वाली है, यह सब विराट पुरुष ही हैं । इस अमर जीव-जगत के भी वे ही स्वामी हैं और जो अन्न द्वारा वृद्धि प्राप्त करते हैं, उनके भी वे ही स्वामी हैं ।।2।।

एतावानस्य महिमातो ज्यायाँश्च पूरुषः ।
पादोऽस्य विश्वा भूतानि त्रिपादस्यामृतं दिवि ।।3।।

अर्थ - विराट पुरुष की महत्ता अति विस्तृत है । इस श्रेष्ठ पुरुष के एक चरण में सभी प्राणी हैं और तीन भाग अनंत अंतरिक्ष में स्थित हैं ।।3।।

त्रिपादूर्ध्व उदैत्पुरुषः पादोऽस्येहाभवत्पुनः ।
ततो विष्वङ् व्यक्रामत्साशनानशनेऽअभि ।।4।।

अर्थ - चार भागों वाले विराट पुरुष के एक भाग में यह सारा संसार, जड़ और चेतन विविध रूपों में समाहित है । इसके तीन भाग अनंत अंतरिक्ष में समाये हुए हैं ।।4।।

ततो विराडजायत विराजोऽअधि पूरुषः ।
स जातोऽअत्यरिच्यत पश्चाद्भूमिमथो पुरः ।।5।।

अर्थ - उस विराट पुरुष से यह ब्रह्माण्ड उत्पन्न हुआ। उस विराट से समष्टि जीव उत्पन्न हुए । वही देहधारीरूप में सबसे श्रेष्ठ हुआ, जिसने सबसे पहले पृथ्वी को, फिर शरीरधारियों को उत्पन्न किया ।।5।।
तस्माद्यज्ञात्सर्वहुतः सम्भृतं पृषदाज्यम् ।
पशूँस्ताँश्चक्रे वायव्यानारण्या ग्राम्याश्च ये ।।6।।

अर्थ - उस सर्वश्रेष्ठ विराट प्रकृति यज्ञ से दधियुक्त घृत प्राप्त हुआ (जिससे विराट पुरुष की पूजा होती है) । वायुदेव से संबंधित पशु, हरिण, गौ, अश्वादि की उत्पत्ति उस विराट पुरुष के द्वारा ही हुई ।।6।।

तस्माद्यज्ञात् सर्वहुतऽऋचः सामानि जज्ञिरे ।
छन्दाँसि जज्ञिरे तस्माद्यजुस्तस्मादजायत ।।7।।

अर्थ - उस विराट यज्ञ-पुरुष से ऋग्वेद एवं सामवेद का प्रकटीकरण हुआ । उसी से यजुर्वेद एवं अथर्ववेद का प्रादुर्भाव हुआ अर्थात् वेद की ऋचाओं का प्रकटीकरण हुआ ।।7।।

तस्मादश्वाऽजायन्त ये के चोभयादतः ।
गावो ह जज्ञिरे तस्मात्तस्माज्जाताऽअजावयः ।।8।।

अर्थ - उस विराट यज्ञ-पुरुष से दोनों तरफ दाँतवाले घोड़े हुए और उसी विराट पुरुष से गौएँ, बकरियाँ और भेड़ें आदि पशु भी उत्पन्न हुए ।।8।।

तं यज्ञं बर्हिषि प्रौक्षन् पुरुषं जातमग्रतः ।
तेन देवाऽअयजन्त साध्याऽऋषयश्च ये ।।9।।

अर्थ - मंत्रद्रष्टा ऋषियों एवं योगाभ्यासियों ने सर्वप्रथम प्रकट हुए पूजनीय विराट पुरुष को यज्ञ (सृष्टि के पूर्व विद्यमान महान ब्रह्मांडरूप यज्ञ अर्थात् सृष्टि-यज्ञ) में अभिषिक्त करके उसी यज्ञरूप परम पुरुष से ही यज्ञ (आत्मयज्ञ) का प्रादुर्भाव किया ।।9।।

यत्पुरुषं व्यदधुः कतिधा व्यकल्पयन् ।
मुखं किमस्यासीत किं बाहू किमूरू पादाऽउच्येते ।।10।।

अर्थ - संकल्प द्वारा प्रकट हुए जिस विराट पुरुष का ज्ञानीजन विविध प्रकार से वर्णन करते हैं, वे उसकी कितने प्रकार से कल्पना करते हैं ? उसका मुख क्या है ? भुजा, जाँघें और पाँव कौन-से हैं ? शरीर-संरचना में वह पुरुष किस प्रकार पूर्ण बना ? ।।10।।

ब्राह्मणोऽस्य मुखमासीद् बाहू राजन्यः कृतः।
ऊरू तदस्य यद्वैश्यः पद्भ्याँ शूद्रोऽअजायत ।।11।।

अर्थ - विराट पुरुष का मुख ब्राह्मण अर्थात् ज्ञानीजन (विवेकवान) हुए। क्षत्रिय अर्थात् पराक्रमी व्यक्ति, उसके शरीर में विद्यमान बाहुओं के समान हैं। वैश्य अर्थात् पोषणशक्ति-सम्पन्न व्यक्ति उसके जंघा एवं सेवाधर्म व्यक्ति उसके पैर हुए।।11।।

चन्द्रमा मनसो जातश्चक्षोः सूर्यो अजायत ।
श्रोत्राद्वायुश्च प्राणश्च मुखादग्निरजायत ।।12।।

अर्थ - विराट पुरुष परमात्मा के मन से चन्द्रमा, नेत्रों से सूर्य, कर्ण से वायु एवं प्राण तथा मुख से अग्नि का प्रकटीकरण हुआ ।।12।।

नाभ्याऽआसीदन्तरिक्षँ शीर्ष्णो द्यौः समवर्त्तत ।
पद्भ्याँ भूमिर्दिशः श्रोत्रात्तथा लोकाँ२ऽकल्पयन् ।।13।।

अर्थ - विराट पुरुष की नाभि से अंतरिक्ष, सिर से द्युलोक, पाँवों से भूमि तथा कानों से दिशाएँ प्रकट हुईं। इसी प्रकार (अनेकानेक) लोकों को कल्पित किया गया है (रचा गया है) ।।13।।
यत्पुरुषेण हविषा देवा यज्ञमतन्वत ।
वसन्तोऽस्यासीदाज्यं ग्रीष्मऽइध्मः शरद्धविः ।।14।।

अर्थ - जब देवों ने विराट पुरुष को हवि मानकर यज्ञ का शुभारम्भ किया, तब घृत वसंत ऋतु, ईंधन (समिधा) ग्रीष्म ऋतु एवं हवि शरद ऋतु हुई ।।14।।

सप्तास्यासन् परिधयस्त्रिः सप्त समिधः कृताः ।
देवा यद्यज्ञं तन्वानाऽअबध्नन् पुरुषं पशुम् ।।15।।

अर्थ - देवों ने जिस यज्ञ का विस्तार किया, उसमें विराट पुरुष को ही पशु (हव्य) रूप की भावना से बाँधा (नियुक्त किया), उसमें यज्ञ की सात परिधियाँ (सात समुद्र) एवं इक्कीस (छंद) समिधाएँ हुईं ।।15।।

यज्ञेन यज्ञमयजन्त देवास्तानि धर्माणि प्रथमान्यासन् ।
ते ह नाकं महिमानः सचन्त यत्र पूर्वे साध्याः सन्ति देवाः ।।16।।

अर्थ - आदिश्रेष्ठ धर्मपरायण देवों ने यज्ञ से यज्ञरूप विराट सत्ता का यजन किया । यज्ञीय जीवन जीने वाले धार्मिक महात्माजन पूर्वकाल के साध्य देवताओं के निवास स्वर्गलोक को प्राप्त करते हैं ।।16।।

ॐ शांतिः ! शांतिः !! शांतिः !!! (यजुर्वेदः 31.1-16)
सूर्य के समतुल्य तेजसम्पन्न, अहंकार रहित वह विराट पुरुष है, जिसको जानने के बाद साधक या उपासक को मोक्ष की प्राप्ति होती है । मोक्षप्राप्ति का यही मार्ग है, इससे भिन्न और कोई मार्ग नहीं । (यजुर्वेदः 31.18)

आदिश्रेष्ठ धर्मपरायण देवों ने, यज्ञ से यज्ञरूप विराट सत्ता का यजन किया।  यज्ञीय जीवन जीनेवाले धार्मिक महात्माजन पूर्वकाल के साध्य देवताओं के निवास, स्वर्गलोक को प्राप्त करते हैंआदिश्रेष्ठ धर्मपरायण देवों ने, यज्ञ से यज्ञरूप विराट सत्ता का यजन किया। यज्ञीय जीवन जीनेवाले धार्मिक महात्माजन पूर्वकाल के साध्य देवताओं के निवास, स्वर्गलोक को प्राप्त करते हैं ||१६||

चतुर्मास भगवान विष्णु को अत्यंत प्रिय है। इन 4 महीनों में भगवान विष्णु शयन मुद्रा में होते हैं। भगवान विष्णु को चतुर्मास में किए हुए जब तक सबसे अधिक प्रसन्नता प्रदान करते हैं। जो भी साधक इन 4 महीनों में यथा संभव जप-तप करता है, वो भगवान नारायण की कृपा का पात्र बन जाता हैं। जो भी मनुष्य चतुर्मास के प्रारंभ में भगवान के सामने यह प्रण करता है कि मैं चतुर्मास में मांसाहार नहीं करूंगा भगवान उस पर अपनी कृपा बरसाते है। 

जो भी साधक चातुर्मास में नक्षत्रो के दर्शन करके एक समय भोजन ग्रहण करता है भगवान् श्री हरी उसकी सभी मनोकामनाएं पूर्ण करते है और वह धनवान, रूपवान और माननीय होता है । जो मानव ब्रह्मचर्य- पालनपूर्वक चौमासा व्यतीत करता है वह श्रेष्ठ विमान पर बैठकर स्वेच्छा से स्वर्गलोक जाता है। जो चौमासे भर नमक को छोड़ देता है उसके सभी पूर्तकर्म (परोपकार एवं धर्मसम्बन्धी कार्य) सफल होते हैं। जिसने कुछ उपयोगी वस्तुओं को चौमासे भर त्यागने का नियम लिया हो, उसे वे वस्तुएँ ब्राह्मण को दान करनी चाहिए। ऐसा करने से वह त्याग सफल होता है ।

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